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कई वर्षों से हो रही है गावां में दुर्गा पूजा, पूजा के दौरान लगता है भव्य मेला, लेकिन इस बार नहीं होगा मेला का आयोजन।

गावां,शिखर दर्पण संवाददाता।

गावां प्रखंड में शारदीय नवरात्र के साथ दुर्गा पूजा की शुरुआत हो गई है। पूजा को लेकर मंदिरों में रंग-रोगन का कार्य भी शुरू हो गया है। मूर्तिकारों द्वारा मां दुर्गा की प्रतिमा को अंतिम रूप दिया जा रहा है। शुक्रवार को प्रखंड के सभी दुर्गा मंदिरों में मां ब्रह्मचारिणी की पूजा अर्चना की गई। गावां काली मंडा मंदिर में भी दुर्गा पूजा की तैयारी जोरों पर है। बता दें कि यहां के कुछ प्राचीन कालीन धरोहर में भी विख्यात है यहां का गावां बाजार में बना काली मंडा लगभग 70 फीट लंबे व 35 फीट ऊंचे कालीमंडा का निर्माण 18वीं सदी के उतर्राध में गावां के तत्कालीन टिकैत पुहकरण नारायण सिंह द्वारा कुशल कारीगरों से कराया गया था। मंडप के प्लास्टर का निर्माण में सुरखी चूना, बेल का गुदा, गुड़, शंख का पानी, उड़द का पानी इत्यादि के मिश्रण का प्रयोग से किया गया है। मंडप के अंदर बड़े हॉल के पूरब व पश्चिम दिशा में दो बड़े कमरे स्थित है। पूरब वाले बड़े कमरे में सर्वप्रथम राजपरिवार द्वारा दक्षिणेश्वर काली के पिंड को विधि-विधान से स्थापित किया गया है। इसलिए शुरू से ही सम्पूर्ण भवन को काली मंडा कहा जाता है। बाद में आश्विन एवं चैती दुर्गा की प्रतिमा बंगाल के कारीगरों द्वारा बनाए जाने लगी। पूरब के उसी कमरे में बेल्जिम ग्लास से बने दो भव्य आईना भी रखा हुआ है। जिन्हें पूजा के दिनों में बाहर लाकर मां दुर्गा प्रतिमा की अगल-बगल रखा जाता है। इस कमरे में सिर्फ मुख्य आचार्य, उनके सहायक, राजपरिवार के सदस्य एवं नाई ही प्रवेश करते है। मंडप के ऊपरी भाग के मध्य में माता दुर्गा की सीमेंट का मूर्ति बनी है। परिसर में फूल पौधों के साथ ग्रेनेटर बैंच भी बनी है। पूजा में राजपरिवार के वरिष्ठ सदस्य स्वयं बैठते है, जो चौदह कोस के जनता की सुख शांति का कामना करते हैं। वर्तमान में मुख्य आचार्य भवेश मिश्रा है। उनके सहायक मनोज पांडेय और नाई के रूप में भीम ठाकुर शामिल है। शारदीय एवं वासंतिक नवरात्र के उपलक्ष्य में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा अर्चना किया जाता है। 

*पूजा के दौरान बकरे की दी जाती है बलि*
सन् 60 के दशक तक के यहां काडा़ की बलि दी जाती थी। लेकिन वर्तमान में अब बकरे की बलि दी जाती है। सन् 60 के दशक तक की पूजा का संपूर्ण खर्च राजपरिवार के द्वारावहन किया जाता था। लेकिन वर्तमान समय में पूजा सार्वजनिक कमेटी द्वारा सबके सहयोग से किया जाता है। मंदिर में अब शादियां भी होने लगी है। यहां शादी का कार्ड चढ़ाने की परंपरा भी जोड़ पकड़ने लगी है। बताया जाता है कि यहां पूर्व में ढोल-बाजे के साथ बेलभरनी माता का निमंत्रण देने और उन्हें लाने के समय चार फीट के चांदी से निर्मित घोड़े हाथी और आठ फीट के चांदी के ही बने बड़े-बड़े स्तूप सजते थे। वहीं माता की डोली के ऊपर सात फीट ब्यास वाला बड़ा छाता तना होती थी।
*भव्य मेला का होता है आयोजन, कोविड लेकर इस बार नहीं होगा आयोजन*
यहां दुर्गा पूजा के दौरान दो-तीन दिनों का भव्य मेला का आयोजन होता है। मेला में प्रखंड के अलावा दूसरे प्रखंड के लोग भी आते हैं। लेकिन इस बार कोविड को लेकर मेला का आयोजन नहीं किया जाएगा। पूर्व में 70 के दशक तक दुर्गा पूजा में लगने वाले मेले की भीड़ का आधा आबादी आदिवासियों की होती थी। तब तीन चार दिनों तक लगने वाले मेले में आदिवासियों का समूह पारंपरिक लिबास से सज धज कर रात भर गीत संगीत में डूबे रहते थे। तब गिरिडीह से लेकर नवादा तक के ब्यापारी मेले में अपनी-अपनी दुकानें सजाते थे। तहत-तरह के खेल तमाशे खूब मनोरंजन करते थे।

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